ग़ज़ल
अज़ब-से हैं शहर के हालात, दुनिया बहरा गई है।
इंसानियत है जुदा इंसान से, फ़िजां सिहरा गई है।
जिन ईंट-पत्थर पर पसीना था लगा मजदूर का,
वो बग़ावत पर उतर आई हैं, शायद पगला गई हैं।
सब्र का सवाल है, ताबूत, कब्र और मज़ार से,
लावारिस मुर्दे को ना मिली, कफ़न शरमा गई है?
हाथ कलम मजदूर के, महल-ए-ताज नूर को मिला,
ज़ुल्मों-अंधेरे कब छंटेंगे, रात भी सहरा गई है।
आवमों-हुक़्म का जहाँपनाह ने ये सिला दिया,
नींद सब की उड़ी है, बेबख़्त घड़ी पहरा गई है।
-सुरेन्द्र पाल
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